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प्रमुख बौद्ध स्थल – BUDDHIST PLACES IN INDIA



किसी बौद्ध धर्म के व्यक्ति को इन चार स्थानों का वैराग्य की वृद्धि के हेतु दर्शन करना चाहिए. वे चार स्थान हैं –
लुम्बिनी वन, जहाँ तथागत का जन्म हुआ.
बोधगया, जहाँ उन्होंने ज्ञानप्राप्त किया.
ऋषिपतन मृगदाव (सारनाथ), जहाँ उन्होंने प्रथम धर्मोपदेश, और
कुशीनगर, जहाँ उन्होंने अनुपाधिशेष निर्वाण में प्रवेश किया.




उपर्युक्त चार स्थलों के अतिरिक्त चार अन्य स्थल हैं, जो बौद्ध धार्मिक साहित्य में अत्यंत पवित्र माने गए हैं. वे हैं –
बुद्धकालीन कोसल देश की राजधानी श्रावस्ती.
संकाश्य
मगध की राजधानी राजगृह और
लिच्छवियों की वैशाली


उपर्युक्त आठों स्थलों को मिलाकर बौद्ध साहित्य में ही अट्ठमहांठाणानि या महास्थान कहलाते हैं.
लुम्बिनी


लुम्बिनी में भगवान् बुद्ध का जन्म हुआ था. इस स्थान की आधुनिक स्थिति रुम्मिनदेयी है जो नेपाल की तराई में स्थित है. अशोक का स्तम्भ यहाँ विद्यमान है. जिस पर अंकित अभिलेख से पता लगता है कि सम्राट अशोक ने अपने राज्याभिषेक के बाद बीसवें वर्ष में इस स्थल की यात्रा की थी. अशोक के इस अभिलेख पर ये शब्द अंकित हैं, यहाँ भगवान् बौद्ध पैदा हुए थे. इससे असंदिग्ध रूप से भगवान् बुद्ध के जन्म की पहचान हो जाती है. अशोक स्तम्भ के अलावा यहाँ एक प्राचीन चैत्य भी है, जिसमें एक मूर्ति पर भगवान् बुद्ध के जन्म का दृश्य अंकित है.
बोधगया


बोधगया में भगवान् बुद्ध ने सम्यक सम्बोधि प्राप्त की थी.
सारनाथ


यहाँ भगवान् बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश दिया. यह धर्मचक्रप्रवर्तन का स्थान है. अशोक ने यहाँ कई स्मारक स्थापित किये, जिनमें प्रसिद्ध अशोक-स्तम्भ, जिसके शीर्ष भाग पर चार सिंह की मूर्तियाँ अंकित हैं. चारों दिशाओं में निर्भीकतापूर्वक शांति और सद्भावना के बुद्ध संदेश की घोषणा का यह प्रतीक है.
पाँचवी और सातवीं शताब्दी ई. में क्रमशः फाहियान और युआन-च्वांग ने इस स्थान की यात्रा की और इसके विषय में महत्त्वपूर्ण विवरण दिए हैं.
बारहवीं शताब्दी के पूर्व भाग में कन्नौज के राजा गोविन्द चंदगाहड़वाल की रानी कुमारदेवी ने यहाँ एक विहार बुद्ध के धर्मचक्रप्रवर्तन के स्मारक के रूप में बनवाया था.
वाराणसी से सारनाथ की ओर आने पर सारनाथ के समीप जो एक ऊँचा भग्न स्तूप दिखाई पड़ता है, जिसे आजकल चौखंडी कहते हैं, वह वही स्थल है जहाँ पहली बार पञ्चवर्गीय भिक्षु मिले थे और जिन्हें बुद्ध ने बाद में अपने धर्म में दीक्षित किया था. सारनाथ के भग्नावशेषों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण धामेख-स्तूप है जो उस स्थान को सूचित करता है जहाँ भगवान् बुद्ध ने अपना प्रथम धर्मोपदेश पंचवर्गीय भिक्षुओं को दिया था. आस-पास की भूमि से यह स्तूप करीब 46 मीटर ऊँचा है.
धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में बलुआ पत्थर की बनी भगवान् बुद्ध की मूर्ति जो यहाँ मिली है, भारतीय कला की एक अद्वितीय कृति है.
कुशीनगर


यहीं के शाल-वन में अस्सी वर्ष की अवस्था में बुद्ध ने निर्वाण प्राप्त किया था. इस ठान की पहचान आजकल के उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में स्थित कसिया नामक स्थान से की गई है.
फाहियान और युआन-च्वांग ने कुशीनगर को उजड़ी हुई अवस्था में देखा था.
कुशीनगर में स्थिति परिनिर्वाण चैत्य गुप्तकाल में निर्मित किया गया.
अशोक ने भी यहाँ एक स्तूप बनवाया था.
कुशीनगर में माथा “कुंवर का कोट” नामक स्थान में भगवान् बुद्ध की परिनिर्वाण प्राप्त की शैयासीन स्थिति में एक भव्य मूर्ति मिली है.
कुशीनगर में रामाभार नामक उस स्थिति को सूचित करता है जहाँ भगवान् बुद्ध का दाह-संस्कार किया गया था और उनके धातु अवशेष के आठ भाग किये गये थे.
श्रावस्ती


यह प्राचीन कोसल देश की राजधानी थी. श्रावस्ती के प्रसिद्ध सेठ अनाथपिंडिक ने यहाँ बुद्ध और भिक्षु संघ के निवास के लिए प्रसिद्ध जेतवन विहार बनवाया था.
संकाश्य


आज इसका नाम संकिसा-बसतपुर है जो फर्रुखाबाद जिला, उत्तर प्रदेश में है. यहाँ भगवान् बुद्ध त्रयस्त्रिंश लोक से उतरे थे.
राजगृह


इसका आधुनिक नाम राजगीर है जो पटना जिले, बिहार में स्थित है. यह मगध राज्य की राजधानी था जिसका बौद्धों के लिए अनेक दृष्टियों में महत्त्व है. यहाँ भगवान् बुद्ध ने अनेक बार वर्षावास किया और यहीं देवदत्त ने उनकी जान लेने का भी प्रयत्न किया.
इसी नगर के वैभार पर्वत की सप्तपर्णी (सत्तपण्णी) गुफा में भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद प्रथम बौद्ध संगीति हुई.
अनेक प्राचीन स्थलों की खोज राजगिरी के भग्नावशेषों में की जा सकती है.
जरासंघ की बैठक को कुछ विद्वानों ने पिप्पल का निवास स्थल माना है. कुछ पालि ग्रन्थों में प्रथम संगीति के संयोजन महाकश्यप के निवास स्थान को पिप्पल गुहा कहा गया है.
गृध्रकूट पर्वत जहाँ भगवान् बुद्ध अक्सर निवास करते थे, राजगृह के समीप ही है.
वैशाली


यह लिच्छवियों की राजधानी थी. इसका आधुनिक नाम बसाढ़ है जो जिला मुजफ्फरपुर, बिहार में है. प्रारम्भिक युग में बौद्धों का एक प्रधान केंद्र थी. भगवान् बुद्ध अपने जीवन काल में इस नगरी में तीन बार गये. यहीं भगवान् बुद्ध ने यह घोषणा की थी कि तीन महीने बाद वे महापरिनिर्वाण में प्रवेश करेंगे.
भगवान् बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद लिच्छवियों ने उनके धातुओं में से प्राप्त अपने भाग पर एक स्तूप का निर्माण वैशाली में किया था.
बुद्ध परिनिर्वाण के करीब सौ बर्ष बाद वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीति हुई थी.
राजा विशाल का गढ़ नामक स्थान, जो बसाढ़ में है, वैशाली के प्राचीन गढ़ को सम्भवतः सूचित करता है.
फाहियान और युआन-च्वांग ने इस ठान की यात्रा की. जहाँ बलुआ पत्थर का एक स्तम्भ है जो आस-पास की सतह से 7 मीटर ऊँचा है. यह अशोक की शैली का स्तम्भ है परन्तु इस पर अशोक का कोई अभिलेख नहीं है. संभवतः यह उन कई अशोक स्तम्भों में से ही है जिनका उल्लेख युआन-च्वांग ने किया है.
साँची


साँची (मुंबई से 880 किलोमीटर) का सम्बन्ध गौतम बुद्ध के जीवन से नहीं है और न उसका अधिक उल्लेख प्राचीन बौद्ध साहित्य में हुआ है. चीनी यात्रियों ने भी इसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा है. फिर भी यह निश्चित है कि प्रारम्भिक बौद्ध कला की सर्वोत्तम निधियाँ हमें साँची में ही मिलती हैं. साँची के स्मारकों का आरम्भ अशोक के युग से हुआ. साँची के बड़े स्तूप का व्यास 30.5 मीटर है. अपने मौलिक रूप में इसे अशोक के काल में ईंट से बनवाया गया था. बाद में इसके आकार को दुगुना किया गया.


अशोक द्वारा की गई बोधगया की यात्रा का एक शिल्पांकन साँची के बड़े स्तूप में पाया जाता है. अन्य कोई छोटे स्तूप यहाँ हैं. अग्र श्रावकधर्म-सेनापति सारिपुत्र और महामौद्गल्लयान के धातुओं के अवशेष साँची में ही मिले थे, जो वहाँ एक नव-निर्मित विहार में स्थापित किये गये हैं.
तक्षशिला


आधुनिक पश्चिमी पाकिस्तान में है. भगवान् बुद्ध के जीवन काल में यह एक प्रसिद्ध स्थान था, जहाँ दूर-दूर से विद्यार्थी शिल्पों की शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाते थे.
कौशाम्बी


कौशाम्बी भगवान् बुद्ध के जीवन काल में वत्स-राज्य की राजधानी थी. यहाँ प्रसिद्ध घोषिताराम विहार था. कौशाम्बी की पहचान आधुनिक कोसम गाँव के रूप में की गई है, जो इलाहाबाद जिले में यमुना नदी के किनारे पर स्थित है.
नालंदा


इसका आधुनिक नाम बड़गाँव है जो राजगीर के समीप स्थित है. उत्तरकालीन बौद्ध धर्म के इतिहास में एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय बन गया. भगवान् बुद्ध ने इस स्थान की अनेक बार यात्रा की और अशोक के समय से ही यहाँ संघाराम आदि बनने शुरू हो गए, परन्तु जो भग्नावशेष यहाँ मिले हैं वे प्रायः गुप्तकाल तक के ही हैं.
युआन-च्वांग ने कुछ समय नालंदा महाविहार में रहकर अध्ययन किया था और उसने इस विहार का विस्तृत वर्णन किया है.
पाँचवी शताब्दी ई. से लेकर 12वीं शताब्दी ई. तक नालंदा विश्वविद्यालय के महावैभवशाली दिन थे और एक शिक्षा-केंद्र के रूप में वह सम्पूर्ण बौद्ध जगत में प्रसिद्ध था.
चीनी यात्री इ-त्सिंग ने भी नालंदा के भिक्षुओं के जीवन का वर्णन किया है.
तारानाथ के अनुसार आचार्य शीलभद्र, नागार्जुन, सुविष्णु, आर्यदेव, दीनाग्गा, धर्मपाल, असंग, वसुबन्धु जैसे आचार्यों ने नालंदा को सुशोभित किया है.

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